कल्पना और यथार्थ
कल्पना-
कौंध जाती है
तडि़त-सी
मन के आंगन
में
और-
आलोकित कर जाती
है
पल भर के
लिए
अन्तरतम को...
अन्धकार--
फिर और
भी गहन नजर आता
है
यथार्थ--
उषाकाल
के सूरज-सा
,
समाता है चेतना
में,
और जगाता है सिहरन
रोम-रोम में...
लेकिन --
पल भर में
चढ़ते सूरज -सा
तकती आंखों को
पीड़ा देता है।
-हरिचन्द
No comments:
Post a Comment