Thursday, August 8, 2013

सांझ-2



सांझ-2

पश्चिमी क्षितिज पर जब
सांझ उतरती है--
आशाओं के पंछी सोने लगते हैं,
दिन भर की थकान
आंखों में उतरने लगती है,
और आती है याद घर की ,
इन्तजार करती आॅंखों की;

छुट्टी पा लेते हैं चरवाहे,
पशु, पक्षी, हवा और लहरें
चैन की सांस लेते है;
तब-
सुनसान झील के किनारे,
निस्संग कुटिया में टिमटिमाती
लौ के आलोक में,
अपने में सिमट आए
पेड़ो के, पौधों के सायों के पास,
निस्तब्ध पर्वत-चोटी के नीचे,
वीरान घाटी के अंधेरे में,
सड़क के बीच बनी
अकेली छूट गयी पूलिया पर,
दोनों ओर चरम बिन्दु पर
ओझल होती सड़क को निहारता
खड़ा वह-
बीच राह मे छूट गया
श्रान्त बटोही-सा-
झील से, पेड़ो के सायों से,
टिमटिमाती लौ से, पर्वत चोटी से,
घाटी से, सड़क से,
पुलिया के नीचे बहते पानी से
बारी-बारी
एक ही प्रश्न पूछता है-
क्या तुम अकेले नही हो?’
पर कही कोई आवाज नहीं,
कोई प्रतिध्वनि नहीं-
सिवा झींगुरों की अनवरत गूंज के
और आखिर हारकर
पश्चिम की ओर मुखातिब हो
वह कह उठता है-
अरी सनातन प्रवंचना!
तुम क्यों हर रोज बुझती लौ को
फिर से जला जाती हो,
और छोड़ जाती हो
रात-भर निस्संग जलने के लिये...
आखिर क्यों ?
और फिर झींगरों की अनवरत गूंज से खीजकर
वह पुकार उठता है-
बन्द करो यह अह्वान...
अब कोई नहीं आएगा...
कोई भी नहीं...
हो जाने हो आशा की लौ को विलीन
निस्सीम अन्धकार में...


 -हरिचन्द

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