सांझ-2
पश्चिमी क्षितिज पर जब
सांझ उतरती है--
आशाओं के पंछी
सोने लगते हैं,
दिन भर की
थकान
आंखों में उतरने
लगती है,
और आती है
याद घर की
,
इन्तजार करती आॅंखों की;
छुट्टी पा लेते
हैं चरवाहे,
पशु, पक्षी, हवा और
लहरें
चैन की सांस
लेते है;
तब-
सुनसान झील के
किनारे,
निस्संग कुटिया में टिमटिमाती
लौ के आलोक
में,
अपने में सिमट
आए
पेड़ो के, पौधों
के सायों के
पास,
निस्तब्ध पर्वत-चोटी के
नीचे,
वीरान घाटी के
अंधेरे में,
सड़क के बीच
बनी
अकेली छूट गयी
पूलिया पर,
दोनों ओर चरम
बिन्दु पर
ओझल होती सड़क
को निहारता
खड़ा वह-
बीच राह मे
छूट गया
श्रान्त बटोही-सा-
झील से, पेड़ो
के सायों से,
टिमटिमाती लौ से,
पर्वत चोटी से,
घाटी से, सड़क
से,
पुलिया के नीचे
बहते पानी से
बारी-बारी
एक ही प्रश्न
पूछता है-
‘क्या तुम अकेले
नही हो?’
पर कही कोई
आवाज नहीं,
कोई प्रतिध्वनि नहीं-
सिवा झींगुरों की अनवरत
गूंज के…
और आखिर हारकर
पश्चिम की ओर
मुखातिब हो
वह कह उठता
है-
‘अरी ओ सनातन
प्रवंचना!’
तुम क्यों हर रोज
बुझती लौ को
फिर से जला
जाती हो,
और छोड़ जाती
हो
रात-भर निस्संग
जलने के लिये...
आखिर क्यों ?
और फिर झींगरों
की अनवरत गूंज
से खीजकर
वह पुकार उठता है-
‘बन्द करो यह
अह्वान...
अब कोई नहीं
आएगा...
कोई भी नहीं...
हो जाने हो
आशा की लौ
को विलीन
निस्सीम अन्धकार में...।’
-हरिचन्द
-हरिचन्द
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