Sunday, August 4, 2013

आजकल



आजकल



आजकल इन्सान से बातें करते डर लगता है।
क्या मालूम-
समझकर इन्सान किसी को
कह डालूं कोई ऐसी बात-
कि समझ बैठे मुझे वो-
हिन्दू या मुसलमान-
स्वर्ण या दलित...
और घोंप दे छुरा
सामने या पीठ पीछे?
आजकल लोगो का अस्तित्व सिमट आया है
इमारतों के बनने और बिगड़ने में
मूर्तियों के लगने और हटने में,
इन्सान मरें या जिएं-
इमारतें जरूर बननी चाहिएं,
इमारतें जरूर बिगड़नी चाहिएं,
इन्सानों की परवाह ही किसे है?
इन्सानी खून बहुत सस्ता हो गया है-
इन्सान रहे ही कहां है आजकल?
आजकल  धर्म को जाना जाता है
मन्दिर और मस्जिदोें की संख्या से,
उनके शिखरों की ऊंचाइयो से,
उनकी भव्यता विशालता से।
धार्मिक शिखरों पर चढ़कर देखने से-
इन्सान कीड़े-मकौड़े नजर आने लगे है आजकल


घन्टों-घडि़यालो की आवाजों के तले
निर्दोष-मासूम बच्चों की चीख- पुकार
विधवाओें का चित्कार/असहायों का क्रस्न्दन
सुनाई ही कहां पड़ता है!
आजकल लोग भूल चुके है-
कि वो भी इन्सान थे कभी ,
अब तो जिधर भी नजर जाती है,
नजर आते है केवल--
हिन्दू और मुसलमान...
स्वर्ण और दलित...
इन्सान कहीं नजर ही नही आते आजकल!!


-अशोक कुमार

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