Monday, August 5, 2013

बेचैन लम्हे



बेचैन लम्हे

अक्सर-
बेचैन लम्हों को जीना
कितना अच्छा लगता है।
बन्द कर लेना सभी द्वार
और समेट लेना खुद को
अपने ही भीतर-
कितना अच्छा लगता है।
अपनी ही पीड़ा की आग में जलना
और जलते ही जाना-
कितना अच्छा लगता है।
भीतर कहीं एक सोते का फूटना
भीतर-ही-भीतर बहना
और रीत जाना-
कितना अच्छा लगता है।
अचानक किसी अंधेरे कोने में
फूट पड़ना किसी स्मृति का
और महसूस करना
सिहरन रोम-रोम में-
कितना अच्छा लगता है
बन्द दरवाजों पर
आत्मीयता की हल्की दस्तक
को नकार देना
और हो रहना अजनबी
कितना अच्छा लगता है।
बन्द दरवाजों पर व्याकुल
चेतना का सिर पटकना,
निस्संग भाव से देखना
और देखते ही जाना
कितना अच्छा लगता है।
सच! कितना अच्छा लगता है
खुद को यूं मरते हुए देखना ...


 -हरिचन्द

No comments:

Post a Comment