Monday, August 19, 2013

गीत-2



गीत-2

जीवन की रगों में घुलता जहर,
सोख ले गया रस को कौन?
हरित-श्यामल-सी गोद धरा की
घुटन से हुई बैचैन,
सद्भाव-तरू की जड़ें हैं कटती,
तम में आरी चलाता कौन?
सोख
माया की यहां चमक उभर रही,
पर कोमल कोंपल झुलस रही,
सनातन शान्ति को छिन्न करने,
चुपके-से यहां आता कौन?
सेाख….
धुंआ उधर अशान्ति का उठ रहा,
इधर वैमनस्य की चिनगारी फूट रही,
लपटें आसमान छूने लगी,
दिलों में आग लगा गया कौन?
सोख
प्रिया ऊषा के स्वागत में,
गाते थे जो गीत मधुर,
सहम  किसी आशंका से
पंछी अचानक क्यों हो गये मौन?
सोख
जो मानव था उसका पुजारी
वही प्रकृति को अब रहा है छल,
अक्ष्म्य उद्दण्डता मानव की
प्रकृति देख रही खड़ी हो मौन।
सोख ले गया रस को कौन?

 -हरिचन्द

Sunday, August 18, 2013

ग्राम-बाला



ग्राम-बाला


श्यामल हरियाली के बीच,
मिट्टी की मेढ़ पर
पड़ते अल्हड़ कदम,
आंचल संभालती ,
परेशान-सी,
आती खेतो की राजकुमारी…
सूरज को लजाते
गर्व से उन्नत भाल पर
ढलते  मोती-से श्रम विन्दु…
शिरस्थ भार को संभाले,
मंद होती किरणो में,
गांव की ओर बढ़ते
निर्विकार कदम
खेतों में अकेली देख उसे
जब पवन अठखेलियां करती है,
अल्हड़पन से मुस्करा देती है
रात-दिन के संगम पे
होठों से जब राग निकलता है,
शान्त वातावरण भी
गूजता है उस के संग-संग…

 -हरिचन्द

Saturday, August 17, 2013

तुम जो



तुम जो

तुम जो-
शान्त-सी, सौम्य-सी, कोमल-सी ,
गरिमामयी-सी, अनछुई-सी,
देती हो एक मौन निमत्रंण….
जानना चाहता हॅूं तुम्हें!
तुम जो-
सपनों में आती हो,
खींचती हो अपनी ओर,
परेशान-सा जब आता हॅूं तुम्हारे पास,
करती हो स्वागत,
उसी शान्त, सौम्य. मुस्कान से,
उन्हीं निरूपाय आंखों से….
आशाओं का एक सागर जगा जाती हो...
प्यार करना चाहता हॅूं तुम्हें!

तुम जो-
हर किसी पर बिखेरती हो जादू,
उसी मुस्कान से,
उन्हीं आंखों से...
आहत होता हॅूं,
नजरे चुराता हॅूं, भाग जाता हॅूं ,
भूलना चाहता हॅूं तुम्हें!

तुम फिर भी
अनजान आकर्षण से,
बुलाती हो बार-बार,
और करती हो स्वागत,
सताती हो, रूलाती हो….
भूलाकर सब कुछ-
शब्दों में पिरोना चाहता हॅूं तुम्हें!

तुम जो-
जीवन-पथ पर चली जाती हो दूर….
संजोकर रखता हॅूं यादें,
शान्त, खिला हुआ चेहरा,
चंचल बोलती-सी आंखें,
चुप-चुप रहकर स्वागत करती-सी आंखें…
पूजना चाहता हॅूं तुम्हें!

 -अशोक कुमार

आत्म-प्रवंचना



आत्म-प्रवंचना

जीने की कोशिश में
और अधिक मरता जाता हॅूं मैं…
झूठी बातों/ झूठी यादों/ और झूठी
आत्म-प्रशंसा के जाल में-
फंसता ही जाता हॅूं मैं
झूठे स्नेह-सम्बन्धों पर आधारित-
एक स्वप्निल दुनिया गढ़ता ही जाता हॅूं मैं….
जानते हुए कि आत्म-प्रवंचना है ये मात्र,
फिर भी जीने की कोशिश में,
जाने क्यों--
स्वयं को छलता ही चला जाता हॅूं मैं ?



-अशोक कुमार