आत्म-प्रवंचना
जीने की कोशिश
में
और अधिक मरता
जाता हॅूं मैं…
झूठी बातों/ झूठी यादों/
और झूठी
आत्म-प्रशंसा के जाल
में-
फंसता ही जाता
हॅूं मैं…
झूठे स्नेह-सम्बन्धों पर
आधारित-
एक स्वप्निल दुनिया गढ़ता
ही जाता हॅूं
मैं….
जानते हुए कि
आत्म-प्रवंचना है
ये मात्र,
फिर भी जीने
की कोशिश में,
जाने क्यों--
स्वयं को छलता
ही चला जाता
हॅूं मैं ?
-अशोक कुमार
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