Friday, August 9, 2013

उतरो रात



उतरो रात

उतरो रात-
तम-सी उदासी में
मुझको समेट लो
दिन भर के
प्रचन्ड कोलाहल से दूर,
तेरी खामोंश गोद में,
खुली आंखों से
आशा के तारे
टिमटिमाते देख तो सकता हॅूं।

उतरो रात-
चांदनी के आंचल में
मुझको छिपा लो
विकल आंखों में
एकत्र पीड़ा को
आत्मसात कर तो सकता हॅूं।

उतरो रात-
नींद का नशा
मुझको पिला दो
स्वप्न लोक में
निज कल्पना को
साकार देख तो सकता हॅूं।

उतरो रात-
बैठो पास मेरे…
मन की तहें खोल
निज अन्तर की तपन को,
तेरे मृदु स्पर्श से
सहला तो सकता हॅूं।
उतरो रात...


 -हरिचन्द

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