उतरो रात
उतरो रात-
तम-सी उदासी
में
मुझको समेट लो…
दिन भर के
प्रचन्ड कोलाहल से दूर,
तेरी खामोंश गोद में,
खुली आंखों से
आशा के तारे
टिमटिमाते देख तो
सकता हॅूं।
उतरो रात-
चांदनी के आंचल
में
मुझको छिपा लो…
विकल आंखों में
एकत्र पीड़ा को
आत्मसात कर तो
सकता हॅूं।
उतरो रात-
नींद का नशा
मुझको पिला दो…
स्वप्न लोक में
निज कल्पना को
साकार देख तो
सकता हॅूं।
उतरो रात-
बैठो पास मेरे…
मन की तहें
खोल
निज अन्तर की तपन
को,
तेरे मृदु स्पर्श
से
सहला तो सकता
हॅूं।
उतरो रात...
-हरिचन्द
-हरिचन्द
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