अबोध शिशु
खेतों को जाती
रमणी की
ऊॅंगली थामे एक
शिशु
जा रहा किलकता-सा…
राह की मृदु
घास पर
लघु पग धरता-सा…
माथे पर सरक
आई उसके
बालों की उलझी
लटें-
हवा में खेलती-सी…
पर आह-
राह के पत्थर
से ठोकर खा-
औंधे मुह गिरता
है,
होठों पे खिंच
आती है
रूआंसी रेखा...
आंखे भीत हो
मां की ओर
ताकती हैं...
मां की ऊॅंगली
थामे
वह जा रहा
शिशु किलकता-सा...
-हरिचन्द
-हरिचन्द
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