Wednesday, July 31, 2013

आत्मा के घोड़े



आत्मा के घोड़े

हां--
बहुत सुखदायक हो सकता है
किसी का तुम पर मेहरबान होना
और साथ ही
बहुत खतरनाक भी

क्योंकि फिर तुम्हारी
क्रियाओं के घोड़े की लगाम
तुम्हारे हाथों से निकल जायेगी,
उनकी पीठ पर भी नहीं होगे तुम।
तुम्हारी जगह बिराजमान होगा
तुम्हारा वह मेहरबान
हाथ में चाबुक लिए...
और तुम...
उनकी पूंछ से बांध दिए जाओगे।

सचमुच बहुत खतरनाक होता है-
अपनी आत्मा के घोड़े
किसी अजनबी के हवाले कर देना।

 -हरिचन्द

Saturday, July 27, 2013

जिजीविषा



जिजीविषा

हम गए थे चिडि़याघर को,
एक बूढ़े चिम्पाजी मिल गए हमको,
मन्त्रमुग्ध हो हम उनको ताका किए,
देखते रहे वो भी हमारी ओर अपलक,
तभी हमारे एक और बन्धु आए,
चिम्पाजी महाशय ने अपनी अदा बदली,

और फिर जमगए आॅंखें गढ़ाये…
हम निहारा किए-
जीवन को समझ चुके बूढ़ों सरीखी
उनकी वह अपलक/तीखी/खामोश
एवं निरर्थक दृष्टि।

चिडि़याघर में
लोग आते हैं,
हॅंसते हैं।
दांत दिखाते हैं,
पत्थर फेंकते हैं,
क्या-क्या नहीं करते लोग!
चिम्पाजी महाशय भी करते रहते हैं वही सब,
जिन्दगी बीत गई है उनकी
आदमी की दी हुई इस छोटी सी दुनिया में,
इसी तहर अदाएॅं बदलते-बदलते…

अब तो बस वे ताका करते हैं-
उसी अपलक/तीखी/खामोश-
एवं निरर्थक दृष्टि से।

दूर एक कोने में-
काटे जा रहा था चक्कर-पे-चक्कर
दुनियां से आॅंखें मूंदे.........
बेबस- बैचेन- मरघिल्ला एक शेर-
जिसकी एक दहाड़ सुनने को हम तरस गए।

मानव तुम धन्य हो…
यों लोहे के शिकंजे में जकड़ी
पराधीन जिंदगी से बेहतर है-
सभ्य मानव की लालसा के सामने
दौड़ते हुए दम तोड़ देना,
उसकी गोली का शिकार हो जाना,
या फिर / प्रकृति से ही जूझते हुए मर जाना


-अशोक कुमार


Friday, July 26, 2013

आस्था


आस्था

वर्षो पहले-
मेरे गांव में होते थे,
बड़े भारी-भरकम
बरगद...
जिनकी जड़े समायी थी मिट्टी में-
गहरे... बहुत गहरे तक।

गांव की मिट्टी में खड़े वे बरगद-
देते थे श्रान्त जीवन को
शान्ति और शीतल छांह…
मेरे गांव को जाना जाता था-
बरगदों से…
जैसे किसी समाज को जाना जाता है
उसके आदर्शो से…

आज भी मेरे गांव को
बरगदों से जाना जाता है,
लेकिन अब वो
भारी बरगद सूख गए हैं,
कुछ की जड़े लील ली हैं मिट्टी ने ,
सूखे ठूंठ भी
अब उखड़ गए हैं।
अब तो बस कहीं कोई
बौना बरगद ही नजर आता है…
गांव की मिट्टी ही खोखला गई है
शायद-
हमारी आस्था की तरह…


 -हरिचन्द