जिजीविषा
हम गए थे
चिडि़याघर को,
एक बूढ़े चिम्पाजी मिल
गए हमको,
मन्त्रमुग्ध
हो हम उनको
ताका किए,
देखते रहे वो
भी हमारी ओर
अपलक,
तभी हमारे एक और
बन्धु आए,
चिम्पाजी महाशय ने अपनी
अदा बदली,
और फिर जमगए
आॅंखें गढ़ाये…
हम निहारा किए-
जीवन को समझ
चुके बूढ़ों सरीखी
उनकी वह अपलक/तीखी/खामोश
एवं निरर्थक दृष्टि।
चिडि़याघर में
लोग आते हैं,
हॅंसते हैं।
दांत दिखाते हैं,
पत्थर फेंकते हैं,
क्या-क्या नहीं
करते लोग!
चिम्पाजी महाशय भी करते
रहते हैं वही
सब,
जिन्दगी बीत गई
है उनकी
आदमी की दी
हुई इस छोटी
सी दुनिया में,
इसी तहर अदाएॅं
बदलते-बदलते…
अब तो बस
वे ताका करते
हैं-
उसी अपलक/तीखी/खामोश-
एवं निरर्थक दृष्टि से।
दूर एक कोने
में-
काटे जा रहा
था चक्कर-पे-चक्कर
दुनियां से आॅंखें
मूंदे.........
बेबस- बैचेन- मरघिल्ला एक
शेर-
जिसकी एक दहाड़
सुनने को हम
तरस गए।
मानव तुम धन्य
हो…
यों लोहे के
शिकंजे में जकड़ी
पराधीन जिंदगी से बेहतर
है-
सभ्य मानव की
लालसा के सामने
दौड़ते हुए दम
तोड़ देना,
उसकी गोली का
शिकार हो जाना,
या फिर / प्रकृति से
ही जूझते हुए
मर जाना…
-अशोक कुमार