गोधूलि
सांझ को लौटते
हलवाहे-
चर्रर्र-चूं...
बैल-गाडि़यों में जुते
बैलों की गृह
ललक,
गर्दो-गुबार का रेला पीछे
छूटता ,
बैलों के गले
में
निनाद करती घंटियां,
नीड़ों को लौटते
खग-दल
भौचक्क, ठिठके -से
गुबार की ऊॅचाई
को पार करते
हैं।
तीव्र लहर जैसे
कोई
चट्टान से टकरा
ऊपर उठती है।
दसों दिशाओं से लोैटते
ढोरों की
व्यूह- रचना में
घीरे
सांझ के धुंधलके
में
सिमटते-से गांव
के प्रांगण में
यह पल-भर
की सरगर्मी है।
-हरिचन्द
-हरिचन्द
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