Thursday, August 1, 2013

गोधूलि



गोधूलि



सांझ को लौटते हलवाहे-
चर्रर्र-चूं...
बैल-गाडि़यों में जुते बैलों की गृह ललक,
गर्दो-गुबार का रेला पीछे छूटता ,
बैलों के गले में
निनाद करती घंटियां,
नीड़ों को लौटते खग-दल
भौचक्क, ठिठके -से
गुबार की ऊॅचाई को पार करते हैं।
तीव्र लहर जैसे कोई
चट्टान से टकरा ऊपर उठती है।
दसों दिशाओं से लोैटते ढोरों की
व्यूह- रचना में घीरे
सांझ के धुंधलके में
सिमटते-से गांव के प्रांगण में
यह पल-भर की सरगर्मी है।


 -हरिचन्द

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