ये शब्द: ये फूल
बचपन में-
जिन गलियों से मैं
गुजरा था
उनमें फूल थे,
शब्द थे,
और स्नेह का दरिया
था।
लेकिन-
मेरे तन-मन
को भिगो देने
वाले
उस स्नेह से अछूता
मैं
फूलों को अनदेखा
और
शब्दों को अनसुना
करता हुआ
कदम-कदम
बचपन की उन
गलियों को
पार करता गया...
दरिया सूखा, फूल मुरझाए,
या शब्द मौन
हुए
मैं रोया नहीं,
कोई आंसू पलकों
तक नहीं आया।
और आज जब
आंखों में ललक
और मन में
प्यास लिए
उन खोयी गलियों
को
मैं ढूंढ रहा
था,
तब एक नन्हा
शिशु
मेरा हाथ थाम
खींच ले गया
मुझे
उन्हीं पुरानी गलियों की
ओर-
और मैंने देखा-
यहां फूल सजे
हुए हैं,
शब्द लय पर
कसे हुए हैं,
स्नहे का दरिया
भी
झील में बदल
गया है।
मन में शंका
होती है -
ये गलियां वे नहीं
हैं
जिनकी मुझे तलाश
है,
और मैं बार-बार हाथ
छुड़ा कर
लौट जाने की
जिद करता हॅूं।
लेकिन आशा की
एक अदृश्य किरण
मुझे रोक लेती
है
और उसके नन्हें
कदमों से
कदम मिलाता हुआ मैं
उसके संग चल
पड़ता हॅूं।
ओ नन्हें देवता !
ये मेरे शब्द
मेरे फूल हैं
अर्पित करता हॅूं
जिन्हें मैं
तुम्हें , तुम्हारे बचपन को
और अपनी खोयी
पुरानी गलियों को।
-हरिचन्द
-हरिचन्द
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