पीड़ा… शब्द… पीड़ा...
पीड़ा –
पहले शान्त थी…
उसकी सतह से
उठता
धुएं का हल्का गुबार
मेरे चेहरे को सहला
गया…
स्पर्श मुझे अच्छा
लगा ,
और मैं उसे
देखता रहा
एकटक...
आंखों में बढ़ती
जलन –
और निस्संगता का झीना
आवरण ,
धीरे- से पिघल
गया...
गुबार का सहलाता
स्पर्श
कुछ और गहरा
हो गया ,
और मैंने पलकें गिरा
ली…
सतह को टटोलती
हाथों की उंगलियां
स्वप्न में भटकने
लगी…
लेकिन वह सतह-
जिसे उंगलियां महसूस कर
पाती
कहीं नहीं मिली…
सहलाते स्पर्श की गर्मी
अब असहय हो
गयी…
सपना टूटा, आंखें खुली ,
और मैंने पाया -
मै बहुत नीचें,
बहुत गहरें में
था…
पीड़ा -
मेरे चारों तरफ उफन
रही थी…
उफनती आग में,
छटपटाती मेरी चेतना
...
और तभी -
एक शब्द उफान
से छलका
और मेरी हथेली
पर आ टिका…
मुझे शान्तवना महसूस हुई,
उसके बाद एक
शब्द और,
एक और...
यों शब्द हथेली
पर जमा होते
रहे....
पीड़ा का उफान
-
धीरे- से छॅंट
गया
और पीछे रह
गये -
हथेली पर टिके
शब्द...
शीतल....
संपूर्ण तपन को
हरते हुए…
हथेली पहले अंजुली,
फिर मुट्ठी बन गयी
और मेरी व्याकुल
चेतना
शब्दों पर सिमट आई
,
शीतलता को गहराई
से महसूसती...
अधीर... व्याकुल...
मुट्ठी में बन्द
शब्द कसमसाने लगे
…
फिर अगले ही
पल--
वे दहकते अंगारे बने
गये …
अंगुलियों के बीच
से
आग बहने लगी…
और एक बार
फिर
मैं जलते उफान
में डूब गया
...
-हरिचन्द
-हरिचन्द
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