Friday, August 16, 2013

पीड़ा… शब्द… पीड़ा...




पीड़ा… शब्द… पीड़ा...



पीड़ा
पहले शान्त थी…
उसकी सतह से उठता
धुएं का हल्का गुबार
मेरे चेहरे को सहला गया…
स्पर्श मुझे अच्छा लगा ,
और मैं उसे देखता रहा
एकटक...
आंखों में बढ़ती जलन
और निस्संगता का झीना आवरण ,
धीरे- से पिघल गया...
गुबार का सहलाता स्पर्श
कुछ और गहरा हो गया ,
और मैंने पलकें गिरा ली…
सतह को टटोलती हाथों की उंगलियां
स्वप्न में भटकने लगी…
लेकिन वह सतह-
जिसे उंगलियां महसूस कर पाती
कहीं नहीं मिली…
सहलाते स्पर्श की गर्मी
अब असहय हो गयी…
सपना टूटा, आंखें खुली ,
और मैंने पाया -
मै बहुत नीचें, बहुत गहरें में था…
पीड़ा -
मेरे चारों तरफ उफन रही थी…
उफनती आग में,
छटपटाती मेरी चेतना ...
और तभी -
एक शब्द उफान से छलका
और मेरी हथेली पर टिका…
मुझे शान्तवना महसूस हुई,
उसके बाद एक शब्द और,
एक और...
यों शब्द हथेली पर जमा होते रहे....
पीड़ा का उफान -
धीरे- से छॅंट गया
और पीछे रह गये -
हथेली पर टिके शब्द...
शीतल....
संपूर्ण तपन को हरते हुए…
हथेली पहले अंजुली,
फिर मुट्ठी बन गयी
और मेरी व्याकुल चेतना
शब्दों पर सिमट आई ,
शीतलता को गहराई से महसूसती...
अधीर... व्याकुल...
मुट्ठी में बन्द शब्द कसमसाने लगे
फिर अगले ही पल--
वे दहकते अंगारे बने गये
अंगुलियों के बीच से
आग बहने लगी
और एक बार फिर
मैं जलते उफान में डूब गया ...

 -हरिचन्द

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