सांझ
होले से उसने
-
मेरे बन्द द्वार
पर दस्तक दी!
सम्मोहित-सा मैं
उठा
और द्वार खोल दिया।
देखा-
सांझ मेरे सम्मुख
खड़ी थी।
मैं ताकता रहा...
पल-भर वह
ठिठकी रही,
फिर पसरती-सी-
मेरे मन आंगन
में भरने लगी....
खोयी सी आंखों
से,
मैने देखा-
रक्त किरण-मदिरा
पीकर
बेसुध होते पेड़ों
को!
अंतिम बूंद मदिरा
की कोई
शायद अभी शेष
थी…
पलक झपकते-
उसे भी सोख
लिया,
किसी भारी पेड़
की
ललचायी चोटी ने...
और अब वे
पेड़-
बेसुध हो ,
सांझ के
आगोश में लिपटे,
प्रेत नजर आने
लगे!
लेकिन
सांझ अब भी
मेरे सामने थी।
हॅंस कर बोली-
‘मदिरा तो चुक
गई…
अच्छा हुआ-
तुम्हारा प्रेत होना मुझे
पसन्द न था,
शायद तुम्हें भी पसन्द
न हो....’
मैंने नजरें झुका ली।
जरा रूक कर
वह बोली-
‘चांदनी पीओगें ?’
तृष्णा मेरे होठों
पर उभर आई।
हल्के झटके से
उसने
खींच लिया मुझे
आगोश में।
घबराकर ---
जब मैंने पलके खोली,
चांदनी-
मेरे चेहरे पर,
मेरे विकल होंठों
पर,
अनायास बरस रही
थी।
बेसुध-सा मैं
उसे
पीता रहा, पीता
रहा.....
उसने फुस-फुसाकर
कहा-
‘चादॅंनी चुकेगी नहीं।’
मैंने घूम कर
देखा-
सांझ वहां न
थी,
प्रेत भी न
थे,
वहां सिर्फ-
चांदनी में नहाए
पेड़ थे,
और रात का
संगीत था.....
-हरिचन्द
-हरिचन्द
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