Tuesday, July 9, 2013

सांझ



सांझ

होले से उसने -
मेरे बन्द द्वार पर दस्तक दी!
सम्मोहित-सा मैं उठा
और द्वार खोल दिया।
देखा-
सांझ मेरे सम्मुख खड़ी थी।

मैं ताकता रहा...
पल-भर वह ठिठकी रही,
फिर पसरती-सी-
मेरे मन आंगन में भरने लगी....

खोयी सी आंखों से,
मैने देखा-
रक्त किरण-मदिरा पीकर
बेसुध होते पेड़ों को!
अंतिम बूंद मदिरा की कोई
शायद अभी शेष थी…
पलक झपकते-
उसे भी सोख लिया,
किसी भारी पेड़ की
ललचायी चोटी ने...

और अब वे पेड़-
बेसुध हो ,
सांझ  के आगोश में लिपटे,
प्रेत नजर आने लगे!
लेकिन
सांझ अब भी मेरे सामने थी
 हॅंस कर बोली-
मदिरा तो चुक गई
अच्छा हुआ-
तुम्हारा प्रेत होना मुझे पसन्द था,
शायद तुम्हें भी पसन्द हो....’
मैंने नजरें झुका ली
जरा रूक कर वह बोली-
चांदनी पीओगें  ?’
तृष्णा मेरे होठों पर उभर आई।
हल्के झटके से उसने
खींच लिया मुझे आगोश में।

घबराकर ---
जब मैंने पलके खोली,
चांदनी-
मेरे चेहरे पर,
मेरे विकल होंठों पर,
अनायास बरस रही थी।
बेसुध-सा मैं उसे
पीता रहा, पीता रहा.....
उसने फुस-फुसाकर कहा-
चादॅंनी चुकेगी नहीं
मैंने घूम कर देखा-
सांझ वहां थी,
प्रेत भी थे,
वहां सिर्फ-
चांदनी में नहाए पेड़ थे,
और रात का संगीत था.....


 -हरिचन्द

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