Friday, July 5, 2013

रात



रात

रात में जब तेज हवा चलती है--
तब मैं स्वयं को,
मुक्त कर चार-दिवारी से,
हवा के थपेड़ों के हवाले कर देता हॅूं
और खोल देता हॅूं,
मानस के कपाट सारे...
भरने लगती है मेरे कानों में-
अधंकार में डूबे
वृक्षों के पत्तों की सांय-सांय
लहरों से आड़ोलित,
सरोवर के जल में,
टिमटिमाते तारों के,
दौड़ते प्रतिबिंब-
आंखों में समाने लगते हैं।
शिथिल अंगों को,
सहलाती तेज हवा,
एक अजीब-से सम्मोहन से,
मुझे ढक देती है।
समाने लगती है-
मेरे मनो-मस्तिष्क में,
एक आलौकिक गन्ध!
और मैं महसूस करता हूं--
इस अंधेरी रात में भी,
कोई जाग रहा होता है….


 -हरिचन्द

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