रात
रात में जब
तेज हवा चलती
है--
तब मैं स्वयं
को,
मुक्त कर चार-दिवारी से,
हवा के थपेड़ों
के हवाले कर
देता हॅूं
और खोल देता
हॅूं,
मानस के कपाट
सारे...
भरने लगती है
मेरे कानों में-
अधंकार में डूबे
वृक्षों के पत्तों
की सांय-सांय
लहरों से आड़ोलित,
सरोवर के जल
में,
टिमटिमाते तारों के,
दौड़ते प्रतिबिंब-
आंखों में समाने
लगते हैं।
शिथिल अंगों को,
सहलाती तेज हवा,
एक अजीब-से
सम्मोहन से,
मुझे ढक देती
है।
समाने लगती है-
मेरे मनो-मस्तिष्क में,
एक आलौकिक गन्ध!
और मैं महसूस
करता हूं--
इस अंधेरी रात में
भी,
कोई जाग रहा
होता है….
-हरिचन्द
-हरिचन्द
No comments:
Post a Comment