जीवन सोचकर नहीं जिया
जाता
इस बार-
फिर बंसन्त आया,
फिर से फूल
खिले,
फिर कोयलिया बोली,
फिर से आम
बौराए,
फिर झरे फूल,
फिर से सूखे
बौराए दिन आए,
फिर अहसास बढ़ा व्यर्थता
का।
खोजकर सार्थकता किसी अर्थ
में
फिर से सपनों
में खोया।
किन्तु फिर.......
वहीं अनबुझा प्रश्न सपनों
में भी!
फिर संदिग्ध हो उठी
सार्थकता__
ओ बुद्धिवादी केंकड़ें !
ऐसे फिर .... फिर....
करते___
जीवन तुम जी
नहीं सकते !
जीवन सोच कर
नहीं जिया जाता
!
हां ! जीवन का बोझ ढोते रहने के
लिए___
खयाल अच्छा है!
-अशोक कुमार
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