Thursday, July 4, 2013

बौद्धिक करूणा



बौद्धिक करूणा

मिल गया था मुझको वो
दीन-हीन, दास व्यवस्था का,
सदियों से पहने गुलामी की बेडि़यां।

सुनकर दो शब्द करूणा के---
देखकर आखें दो सहानुभूति-भरी---
ऐसा आया उल्लास कि उसमें---
सदियों से दबी खामोश आवाज---
अचानक निकली बाहर/ तोड़ते हुए  सारे बांध
एक उग्र आक्रोश ,  एक तीखापन लिए---
बहुत हो चुका---
हम संघर्ष करेंगे अन्याय के खिलाफ,
अब और नहीं रहेंगे खामोंश,
निरीह जानवरों की तरह,
आखिर इंसान हैं हम भी।

काश ! वो जान पाता---
मेरे पास देने को कुछ नहीं,
सिवाय बौद्धिक करूणा के,
जिसमें आक्रोश की भी शक्ति नहीं।

धन्य हे उसका आक्रोश---
अहसास दिलाता है जो मुझे,
मेरी नपुंसकता का,
निरर्थकता का!


-अशोक कुमार

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