बौद्धिक करूणा
मिल गया था
मुझको वो
दीन-हीन, दास
व्यवस्था का,
सदियों से पहने
गुलामी की बेडि़यां।
सुनकर दो शब्द
करूणा के---
देखकर आखें दो
सहानुभूति-भरी---
ऐसा आया उल्लास
कि उसमें---
सदियों से दबी
खामोश आवाज---
अचानक निकली बाहर/ तोड़ते
हुए सारे
बांध
एक उग्र आक्रोश , एक तीखापन
लिए---
‘बहुत हो चुका---
हम संघर्ष करेंगे अन्याय
के खिलाफ,
अब और नहीं
रहेंगे खामोंश,
निरीह जानवरों की तरह,
आखिर इंसान हैं हम
भी। ’
काश ! वो जान
पाता---
मेरे पास देने
को कुछ नहीं,
सिवाय बौद्धिक करूणा के,
जिसमें आक्रोश की भी
शक्ति नहीं।
धन्य हे उसका
आक्रोश---
अहसास दिलाता है जो
मुझे,
मेरी नपुंसकता का,
निरर्थकता का!
-अशोक कुमार
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