भावी कर्णधार
रोज सवेरे--
बगल में थैला
लटकाये
जाती भीड़ बच्चों
की--
धुले, अध-धुले, अनधुले चेहरे
लिए,
ढंगे-बेढंगें, अधनंगे
देश के भावी
कर्णधार--
पाठशाला को जाते
हैं,
निकाल देती हैं
मांॅएं जिनको,
सवेरे-सवेरे घर से
बासी या रूखी-सुखी देकर
साथ में खिलाकर
दो-चार
झिड़कियांॅ
और हो जाती
है मुक्त।
और वे निष्काम
तपस्वी-से
जो भी मिलता
है
उसे ही हजम
कर,
चल पड़ते हैं
निज साधना-स्थल की
ओर…
देश के वर्तमान
कर्णधारों से
चली आ रही
सीढ़ी-दर-सीढ़ी
उतरती
ज्यादती को
मास्टर जी के
हाथों झेलते है
अपने कोमल निश्छल
हाथों पर
साथ में निगलते
हुए-
कुनैन सदृश शिक्षा
की गोलियां
जो कूट-कूट
कर भरी जाती
है
खाली दिमाग में।
और शाम को
वहीं स्कूल प्रागंण में
उलीच उसे
खाली दिमाग घर लौटते
हैं-
देश के-
समाज के-
भावी कर्णधार….
-हरिचन्द
-हरिचन्द
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